जब किसी अपराध की शिकायत कोई व्यक्ति डारेक्ट मजिस्ट्रेट के समक्ष करता है। तब मजिस्ट्रेट ऐसे शिकायतकर्ता की परीक्षा ले सकता है एवं साक्षियों से भी शपथ लेगा और परिवादी अर्थात शिकायतकर्ता के बयानों को लेखबद्ध कर हस्ताक्षर करेगा। उसके बाद मजिस्ट्रेट का दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 202 के अंतर्गत यह कर्तव्य होगा कि वह अपराध के मामले कि संज्ञान लेकर मामले की जांच या इन्वेस्टिगेशन करवाए। जांच के बाद मजिस्ट्रेट कब परिवाद को खारिज करेगा आज के लेख में हम बताते हैं जानिए।
दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 203 की परिभाषा
कोई भी मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या प्राधिकृत मजिस्ट्रेट किसी परिवाद का संज्ञान ले रहा है एवं वह स्वयं या पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति से अपराध की जांच करवा दी है एवं मजिस्ट्रेट को लगता है कि आरोपी या प्रतिवादी के अपराध सिद्ध होने के कोई समुचित आधार नहीं है तब वह मजिस्ट्रेट परिवाद को खारिज कर सकता है।
निम्न दो कारण भी परिवाद खारिज के आधार है:-
1. यदि मजिस्ट्रेट यह पाता है कि कोई अपराध हुआ ही नहीं है तब।
2. यदि मजिस्ट्रेट परिवादी के वक्तव्यों पर विश्वास नहीं करता है तब।
:- लेखक बी. आर. अहिरवार (पत्रकार एवं लॉ छात्र होशंगाबाद) 9827737665 | (Notice: this is the copyright protected post. do not try to copy of this article) इसी प्रकार की कानूनी जानकारियां पढ़िए, यदि आपके पास भी हैं कोई मजेदार एवं आमजनों के लिए उपयोगी जानकारी तो कृपया हमें ईमेल करें। editorbhopalsamachar@gmail.com
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