देश के मध्यप्रदेश, उ.प्र., बिहार जैसे बड़े राज्यों में कुपोषण के आंकड़े डराने लगे हैं | देश के भी हालात ठीक नहीं है | वैश्विक भूख सूचकांक में शामिल 107 देशों में 94 वें स्थान पर पहुंचकर भारत का गंभीर श्रेणी में दर्ज होना, हमारे देश भारत में विकास के थोथे दावों की हकीकत बयान करता है। नीति-नियंताओं यानि देश के पक्ष प्रतिपक्ष दोनों के लिए यह शर्म की बात हो सकती है कि इसी सूची में श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार, नेपाल और पाक हमसे बेहतर स्थिति में हैं। देश की सरकार और संसद को अपनी उस भूमिका पर विचार करना चाहिए, जिससे वे अपना कल्याणकारी स्वरूप होने का दम भरती आ रही है |
ये वैश्विक आकलन साफ तौर पर शासन-प्रशासन की नीतियों की विफलता और योजनाओं के क्रियान्वयन व प्रभावी निगरानी के आभाव का जीवित दस्तावेज है। कुपोषण से निपटने में शासन-प्रशासन की उदासीनता एक बड़ी वजह है। देस्ध के नीति नियंता मंथन करें कि पिछले साल जहां आपका भारत इस सूची में 102 वें स्थान पर था, तो इस बार 94 वें स्थान पर कैसे पहुंच गया। सरकार यदि इसके लिए प्राथमिक रूप से जिम्मेदार है तो निगहबानी की जवाबदारी से प्रतिपक्ष मुकर नहीं सकता | यह तर्क गले नहीं उतर रहा है कि जिन पड़ोसी देशों से तुलना की जा रही है, उनके मुकाबले भारत की आबादी बहुत ज्यादा है। सही बात यह है कि लक्ष्यों को पाने की विफलता यही बताती है कि प्रयास ठीक ढंग से नहीं किये गये।
जरा इस तरफ भी गौर कीजिये देश में आर्थिक विषमता लगातार बढ़ती जा रही है। हमारे में देश की 14 प्रतिशत आबादी का कुपोषण का शिकार होना देश की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था की विफलता को ही उजागर नहीं प्रमाणित करता है। हालांकि, देश में शिशु मृत्युदर में सुधार हुआ है लेकिन यह अभी भी 3.7 बनी हुई है। यह भी गंभीर चिंता का विषय है कि देश के37.4 प्रतिशत बच्चों का कुपोषण के चलते पूर्ण विकास नहीं हो पा रहा है। इन बच्चों के कद न बढ़ने के मूल में पौष्टिक भोजन का अभाव, गरीबी व मां की शिक्षा का स्तर कम होना है।मध्यप्रदेश का पोषण आहार घोटाला और उसमें घोटालेबाजों के हाथ में फिर से कमान सौपने जैसे करतब हो चुके हैं | घोटालेबाज कानूनी दाव-पेंच में माहिर हैं और न्यायालय को भी भ्रम में डाल देते हैं |
यही हाल गर्भवती माताओं की देखरेख का है| आंकड़ों का विश्लेष्ण बताता है पांच साल से कम उम्र के बच्चों के कुपोषित होने की वजह उनका समय से पहले होना और कम वजन का होना भी है, जिसके चलते पिछड़े राज्यों व ग्रामीण क्षेत्रों में कुपोषण के आंकड़े बढ़े हैं। इसलिये जरूरी हो जाता है कि उ.प्र., बिहार व मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्यों में गर्भवती माताओं की स्थितियों में तत्काल सुधार लाया जाये। वर्तमान में देश में पैदा होने वाला हर पांचवां बच्चा उ.प्र. का होता है। बड़ी आबादी के राज्य होने के कारण इनसे देश का राष्ट्रीय औसत भी बिगड़ जाता है। समय की मांग है कि उ.प्र., बिहार, झारखंड और मध्यप्रदेश में कुपोषण के खिलाफ युद्ध स्तर पर लड़ाई शुरू की जाये।
हाल में आये चिंताजनक आंकड़े बताते हैं कि विकास को लेकर सरकारी घोषणाओं और वास्तविक धरातल पर परिणामों में भारी अंतर है। संभव है कि कोरोना संकट के बाद जो आंकड़े आएं, वे इससे ज्यादा कष्टकारी हो सकते हैं। गरीब परिवारों तक सस्ता, सुरक्षित व पौष्टिक भोजन पहुंचाने के लिये प्रभावी रणनीति बने, इसमें सभी को सहयोग करना चाहिए जी हाँ ! प्रतिपक्ष को भी आलोचना करने के और विषय हो सकते है । इन राज्यों के ग्रामीण इलाकों में जागरूकता, साक्षरता बढ़ाने तथा समय रहते कुपोषित बच्चों की पहचान के लिये प्रभावी नीतियां बनें। वैश्विक भूख सूचकांक के जो चार मानक मसलन अल्पपोषण, वजन, कद तथा शिशु मृत्युदर हैं, उन्हें समग्र दृष्टि के साथ सुधारने की जरूरत है। मुद्दों के राजनीतिकरण के बजाय सरकार व विपक्ष को मिलकर देश के भावी भविष्य बनाने के लिये साझी रणनीति बनानी चाहिए।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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